Thursday, November 18, 2010

क्यों अपमान होता है यहाँ ईमानदारी का और ईमानदार अधिकारियों का ?


ये है एक बेहद ईमानदार आई.ए.एस अधिकारी (सेवानिवृत) और पुरस्कार विजेता लेखक श्री राजू शर्मा जी की सत्य घटना |

23 जून 1959 को जन्मे डॉ. शर्मा ने दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफंस कॉलेज विश्वविद्यालय से 1979 में भौतिकी (ऑनर्स) में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और दिल्ली विश्वविद्यालय के टॉपर रहे, तथा सेंट स्टीफंस कॉलेज से ही 1981 में भौतिकी में पोस्ट गेरजुएशन पूरा किया. उन्होंने 1998 में चंडीगढ़, पंजाब विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन इंडियन इंस्टिट्यूट ( Indian Institute of Public Administration.) से अपने एम. फिल किया था और निदेशक का पदक (Director's Medal) के प्राप्तकर्ता थे. उन्होंने 2003 में पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की उनके शोध का विषय था "Bureaucratic Process and its implications for Governance: A Study of Uttar Pradesh".

1982 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर आई.ए.एस अधिकारी श्री शर्मा ने अपने करियर की शुरुआत भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड कर और ईमानदारी को अपना धर्म मान कर शायद इसी कारण कभी उनको महत्वपूर्ण पद नहीं दिया गया, अगर दिया भी गया तो ज्यादा दिन टिकने नहीं दिया| शायद यही ईमानदारी उनके लिए सज़ा बनती जा रही थी, लेकिन अपने सिद्धांतों से कभी नहीं डिगे, अपने ईमानदारी के कारण उन पर कई जान लेवा हमले भी हुए ? लेकिन इन हमलों से बेपरवाह श्री शर्मा ने अपने कर्तव्यों का पालन करते गए | कई बार सरकार की बेरुखी के कारण वे लम्बी छुट्टी पर भी चले गए | लेकिन जब भी उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद दिया गया उन्होंने अपनी ईमानदारी दिखाते हुए अपना काम किया, जो सदैव जनहित में रहा |

प्रतिनियुक्ति (Deputation) के दौरान केंद्र में फरवरी 2008 में उनको यू.जी.सी (यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन) के सचिव का पद दिया गया, अपनी कार्य शैली के अनुसार उन्होंने कड़ी मेहनत से कुल 44 ऐसे संस्थानों की लिस्ट तैयार की जो मानकों (standard) के अनुसार नहीं थे एवं छात्र के भविष्यों के साथ खेल रहे थे श्री शर्मा ने इन संस्थानों के खिलाफ उचित कार्यवाही की मांग की , जिससे सम्बंधित महकमों में हडकंप मच गया, जितने भी लोग इस फर्जीवाड़े में शामिल थे उनके होश उड़ गए, इस कारण उलट श्री शर्मा पर उनके विरोधियों ने ऊँगली उठानी शुरू कर दी, क्योकि उस लिस्ट में कुछ बड़े संस्थान और रसूखदार लोग शामिल थे | सम्बंधित मंत्रालय ने जांच के आदेश दिए और श्री शर्मा को जांच होने तक उनके पद से हटा दिया गया | श्री शर्मा के हट जाने से उनके विरोधियों ने राहत की साँस तो ली, लेकिन बाद में मंत्रालय ने जांच में शर्मा को सही पाया | उनकी ईमानदारी से परेशान उनके विरोधियों ने ये कहना शुरू कर दिया की ये (श्री शर्मा ) उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी है और इनका केंद्र में नहीं रहना उचित नहीं है |

इसके बाद दो वर्षों तक केंद्र में रहने के बाद श्री शर्मा अपने कैडर उत्तर प्रदेश लौटे | प्रतिनियुक्ति से लौटते ही श्री शर्मा को उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग का मुख्य सचिव बनाया गया, अपनी कार्य शैली और ईमानदारी के सिद्धांत पर चलते हुए श्री शर्मा ने काम किये , लेकिन कुछ ही दिनों में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनका तबादला उच्च शिक्षा विभाग के समकक्ष पद पर कर दिया फिर कुछ ही दिन बीते होंगे तभी श्री शर्मा का तबादला राजस्व विभाग में कर दिया गया| दो महीनो में तीन तबादलों से परेशान श्री शर्मा ने अपनी बाकी बची नौ वर्षों की नौकरी की चिंता किये बिना अपना इस्तीफा सरकार को दे दिया | अपनी ईमानदारी के हर प्रयासों को भ्रष्टाचार के सामने हारता देख निराश श्री शर्मा भ्रष्टाचार के आगे हार गए | क्या इतने शिक्षित और मेधावी अधिकारी का यूँ हार जाना देश की प्रतिष्ठा पर सवाल नहीं है, क्या इससे बेईमानी और मजबूत नहीं होगी ? क्या ऐसे ईमानदार और शिक्षित अधिकारी का खोना इस देश का दुर्भाग्य नहीं है ? कब तक यूँ श्री शर्मा जैसे ईमानदार अधिकारी यूँ बेईमानी की भेट चढ़ते रहेंगे | कब ये भ्रष्ट नेता और अधिकारी देश को यूँ नोचते रहेंगे | और हम सिर्फ ये तमाशा देखते रहेंगे |

Monday, November 15, 2010

हमारे देश में ईमानदारों की क़द्र क्यों नहीं है.... ?

salutes Sanjeev Chaturvedi (Indian Forest Services) 2002 Batch for his honesty ... 11 Transfer within 4 years !!

चंडीगढ़. न तो आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ईमानदारी की अपनी आदत से बाज आ रहे हैं और न ही उनके खिलाफ लामबंद हुए लोग उनके खिलाफ कार्रवाई कराने से। अनियमितताओं का एक मामला उजागर करने पर सस्पेंड होने के बाद चतुर्वेदी को बहाल करने के लिए खुद राष्ट्रपति तक को आदेश जारी करने पड़ चुके हैं। उनका अब तक चार साल में 11 बार ट्रांसफर हो चुका है।

गलत को गलत कहने की उनकी जिद कुरुक्षेत्र से शुरू हुई, जहां 2002 बैच के इस आईएफएस अधिकारी को पहली पोस्टिंग मिली थी। वहां वाइल्डलाइफ एरिया के बीचोंबीच एक नहर निकालने के लिए सैंकड़ों पेड़ों की अवैध कटाई के खिलाफ उन्होंने हरियाणा सिंचाई विभाग के ठेकेदारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी। इसके बाद शुरू हुई असल जंग। राज्य के तत्कालीन मुख्य वन्य जीव संरक्षक ने चतुर्वेदी की शिकायत को नकार दिया और इसके साथ ही चतुर्वेदी के तबादलों का दौर शुरू हो गया। 

मंजुनाथ ट्रस्ट से व्हिसल ब्लोअर पुरस्कार पा चुके चतुर्वेदी का जब फतेहाबाद तबादला हुआ तो यहां एक राजनेता की निजी जमीन पर सरकारी पैसे से बनने वाले हर्बल पार्क पर उनकी नजर पड़ गई। संजीव चतुर्वेदी अपनी फॉर्म में आए और उधर नेता जी ने अपनी जुगत लगाकर उन्हें सबक सिखाने की ठानी। नतीजा, चतुर्वेदी सस्पेंड कर दिए गए। फिलहाल, चतुर्वेदी हिसार में तैनात हैं। 

जिद और जुनून अभी ठंडा नहीं पड़ा है।वे केंद्र सरकार की ओर से राज्य सरकार को भेजे गए नोटिस के जबाव के इंतजार में हैं। ताकि यह तय किया जा सके कि स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने का दावा करने वाली सरकार ईमानदारी से ड्यूटी देने की जिद पर अड़े इस आईएफएस का साथ देती है या नहीं।

..तो भी बरकरार रही जिद 

चतुर्वेदी को जब डीएफओ झज्जर बनाया गया तो उन्होंने पौधरोपण में करोड़ों का घपला पकड़ा। एक-एक पौधे की गिनती करवा ली, नौ वन अधिकारियों को सस्पेंड कर दिया और 40 को बर्खास्तगी नोटिस जारी किया और शाम को घर लौट कर खुद के अगले तबादले की तैयारी शुरु की |

Wednesday, November 10, 2010

हमारे देश की दुर्दशा | यहां ईमानदार और उच्च शिक्षित अफसरों को ईनाम में मिलती है मौत...





गौतम गोस्वामी ने छोड़े हैं जो सवाल! बिहार में विकास की बातें चुनाव के बहाने बहुत जोर जोर से हुई। यह भी कहा गया कि लालू यादव की सरकार ने तो घपलों के अलावा कुछ किया ही नहीं था। इस पूरे शोर में एक नाम किसी को याद नहीं आया जो पिछले साल 6 जनवरी 2009 को संसार से विदा ले चुका था और इतने सारे सवाल छोड़ गया था कि उनके जवाब नेताओं के वश में नहीं है।



गौतम गोस्वामी नाम का यह आदमी हमारी व्यवस्था और तंत्र पर खुद सवाल है। बिहार का एक लड़का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की मेडीकल प्रवेश परीक्षा में टॉप करता है, एमबीबीएस और एमडी पास करता है, वहां भी टॉप करता है, फिर आईएएस का इम्तिहान देता है, वहां भी सबसे ज्यादा नंबर पाने वालों में होता हैं, पटना के कलेक्टर के तौर पर बाढ़ राहत का काम इतना मन लगा के करता है कि दुनिया की सबसे बड़ी पत्रिकाओं में से एक टाइम उसे नायक के तौर पर कवर पर छापती है। मगर कुछ ही दिन बाद इस राहत के सिलसिले में घपले का पता चलता है और कुल 27 लोगों के खिलाफ चार्जशीट लिखी जाती है। पकड़े सिर्फ गौतम गोस्वामी और एक दलाल किस्म का आदमी संतोष झा ही जाते हैं।


गौतम गोस्वामी नायक थे या खलनायक लेकिन उनकी मौत से उठे सवाल अब तक जवाब मांगते हैं। कलेक्टर खुद फाइलें चेक और सामान की खरीददारी के टेंडर नहीं बनाता। सत्रह करोड़ रुपए के घपले का आरोप था और नेता लोग ऐसे घपले में शामिल नहीं हो इसकी कल्पना कौन कर सकता है? मगर जेल उस गौतम गोस्वामी कोजाना पड़ा जिसमें इतनी हिम्मत थी कि पटना के कलेक्टर के नाते तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को आचार संहिता के तहत रात के दस बजते ही चुनाव सभा के मंच से उतार सकता था। सबसे पहले गौतम गोस्वामी का नाम इसी घटना से जाना गया था। गौतम के पिता उत्पलेंदु गोस्वामी सबूत दे कर कहते हैं कि घपला नेताओं और उनके दलालों ने किया और फंसाया उनके बेटे को गया।


जिंदगी में सफलताएं ही सफलताएं पाने वाले गौतम गोस्वामी के बारे में किसने सोचा होगा कि जेल में रहते हुए तनाव और कुपोषण की वजह से यह युवक यकृत के कैंसर का शिकार हो जाएगा और कुछ ही दिनों में मरने के कगार पर पहुंच जाएगा। राष्ट्रपति शासन था तब गौतम के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी, इसके बाद जब हालत बहुत खराब हुई तो नीतिश कुमार सरकार ने गौतम को न सिर्फ जेल से छोड़ा बल्कि इलाज की सुविधाआें के लिए सरकारी सेवाओं वापस ले लिया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गौतम पटना में गंगा के किनारे गुलाबी घाट मरघट पर एक चिता पर चढ़े और राख बन गए। कैंसर ने उन्हें इतना कमजोर कर दिया था कि दिल का दौरा पड़ा और सिर्फ चालीस साल की उम्र में गौतम मारे गए। बाकी 26 अभियुक्ताेंं का क्या हुआ और लोकतंत्र के कलंक होने के बावजूद राहत का पैसा हजम करने वाले इन लोगों को कौन सी संहिता के तहत अभयदान मिल गया यह कोई नहीं जानता।


गौतम ने आईएएस की नौकरी ग्यारह साल की और उनके ग्यारह तबादले हुए। दो बार तो पटना के ही कलेक्टर बने। जो सरकारी अधिकारी नेताओं को खिला पिला कर खुश रखता है वह पूरी जिंदगी एक ही कुर्सी पर काट देता है और नेता भी उनका साथ देते है। गौतम गोस्वामी को जेल में मौत नसीब हुई इसी से जाहिर है कि सत्ता के दलालों में वे शामिल नहीं थे। राहत का पैसा जिस प्राइवेट संस्था में जमा किया गया उसका नाम सरकार की संस्था से मिलता जुलता था और यह संस्था लालू यादव के सबसे खास एक नेता की थी।


गौतम गोस्वामी जब जेल से बाहर आए तो उन्हें उम्मीद थी कि वे अपना सच साबित कर पाएंगे मगर अदालतों के पास वक्त ही नहीं था। जब मामले की सुनवाई होती तब गौतम की सुनी जाती और यह मौका के जीते जी कभी आया नहीं। गौतम की मौत से राहत महसूस करने वाले बहुत होंगे क्यांकि अब उनके कलंक उजागर करने वाला कोई नहीं है। अभी तक की जांच में पता लग चुका है कि फर्जी संस्था को असली बता कर और फाइलों पर नकली कारण दर्ज कर के गौतम गोस्वामी से चेकों पर दस्तखत करवाए जाते रहे और आखिरकार सारे कलंक गौतम के सिर पर मढ़ दिए गए।


गौतम की पत्नी अनुराधा भी डॉक्टर हैं और एक नादान बेटी और बेटा है। न्याय के लिए न सही, तंत्र के न सही, लोकतंत्र के लिए न सही, इन बच्चों को कलंकमुक्त करने के लिए उस घोटाले की पूरी जांच होनी चाहिए और सही नतीजे सामने आने चाहिए जिसने गौतम गोस्वामी जैसे शानदार कैरियर वाले आदमी को कलंक का पात्र बना दिया। टाइम पत्रिका ने तो गौतम को शाहरूख खान और अनुष्का शंकर के बराबर रखा था। गौतम की जिंदगी को कहानी बना कर टाइम पत्रिका के भारत संवाददाता अरविंद अडिग ने उपन्यास लिखा और इस उपन्यास पर बाकायदा बुकर्स पुरस्कार से सम्मानित हुए।


गौतम गोस्वामी को याद करने वाले बहुत सारे लोग हैं। इनमें से बड़ी संख्या समस्तीपुर में हैं जहां आईएएस में आने के बाद गौतम गोस्वामी रौशेरा ब्लॉक के अनुविभागीय अधिकारी बने थे। अपना अफसरी का काम करने के बाद गौतम और उनकी पत्नी गरीबों और गांव वालों का इलाज करते थे। इसके लिए कोई फीस नहीं लेते थे। बिहार में लोकतंत्र एक बार फिर जैसे भी वापस आया है मगर इस लोकतंत्र का मतलब सिर्फ हवाई पाठ पढ़ा देने और गुनाहों की अपनी परिभाषा गढ़ लेने से हैं तो इस लोकतंत्र का मतलब क्या है? गौतम गोस्वामी की आत्मा यह सवाल पूछती है और हम में से किसी के पास जवाब नहीं हैं।