Wednesday, November 10, 2010

हमारे देश की दुर्दशा | यहां ईमानदार और उच्च शिक्षित अफसरों को ईनाम में मिलती है मौत...





गौतम गोस्वामी ने छोड़े हैं जो सवाल! बिहार में विकास की बातें चुनाव के बहाने बहुत जोर जोर से हुई। यह भी कहा गया कि लालू यादव की सरकार ने तो घपलों के अलावा कुछ किया ही नहीं था। इस पूरे शोर में एक नाम किसी को याद नहीं आया जो पिछले साल 6 जनवरी 2009 को संसार से विदा ले चुका था और इतने सारे सवाल छोड़ गया था कि उनके जवाब नेताओं के वश में नहीं है।



गौतम गोस्वामी नाम का यह आदमी हमारी व्यवस्था और तंत्र पर खुद सवाल है। बिहार का एक लड़का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की मेडीकल प्रवेश परीक्षा में टॉप करता है, एमबीबीएस और एमडी पास करता है, वहां भी टॉप करता है, फिर आईएएस का इम्तिहान देता है, वहां भी सबसे ज्यादा नंबर पाने वालों में होता हैं, पटना के कलेक्टर के तौर पर बाढ़ राहत का काम इतना मन लगा के करता है कि दुनिया की सबसे बड़ी पत्रिकाओं में से एक टाइम उसे नायक के तौर पर कवर पर छापती है। मगर कुछ ही दिन बाद इस राहत के सिलसिले में घपले का पता चलता है और कुल 27 लोगों के खिलाफ चार्जशीट लिखी जाती है। पकड़े सिर्फ गौतम गोस्वामी और एक दलाल किस्म का आदमी संतोष झा ही जाते हैं।


गौतम गोस्वामी नायक थे या खलनायक लेकिन उनकी मौत से उठे सवाल अब तक जवाब मांगते हैं। कलेक्टर खुद फाइलें चेक और सामान की खरीददारी के टेंडर नहीं बनाता। सत्रह करोड़ रुपए के घपले का आरोप था और नेता लोग ऐसे घपले में शामिल नहीं हो इसकी कल्पना कौन कर सकता है? मगर जेल उस गौतम गोस्वामी कोजाना पड़ा जिसमें इतनी हिम्मत थी कि पटना के कलेक्टर के नाते तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को आचार संहिता के तहत रात के दस बजते ही चुनाव सभा के मंच से उतार सकता था। सबसे पहले गौतम गोस्वामी का नाम इसी घटना से जाना गया था। गौतम के पिता उत्पलेंदु गोस्वामी सबूत दे कर कहते हैं कि घपला नेताओं और उनके दलालों ने किया और फंसाया उनके बेटे को गया।


जिंदगी में सफलताएं ही सफलताएं पाने वाले गौतम गोस्वामी के बारे में किसने सोचा होगा कि जेल में रहते हुए तनाव और कुपोषण की वजह से यह युवक यकृत के कैंसर का शिकार हो जाएगा और कुछ ही दिनों में मरने के कगार पर पहुंच जाएगा। राष्ट्रपति शासन था तब गौतम के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी, इसके बाद जब हालत बहुत खराब हुई तो नीतिश कुमार सरकार ने गौतम को न सिर्फ जेल से छोड़ा बल्कि इलाज की सुविधाआें के लिए सरकारी सेवाओं वापस ले लिया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गौतम पटना में गंगा के किनारे गुलाबी घाट मरघट पर एक चिता पर चढ़े और राख बन गए। कैंसर ने उन्हें इतना कमजोर कर दिया था कि दिल का दौरा पड़ा और सिर्फ चालीस साल की उम्र में गौतम मारे गए। बाकी 26 अभियुक्ताेंं का क्या हुआ और लोकतंत्र के कलंक होने के बावजूद राहत का पैसा हजम करने वाले इन लोगों को कौन सी संहिता के तहत अभयदान मिल गया यह कोई नहीं जानता।


गौतम ने आईएएस की नौकरी ग्यारह साल की और उनके ग्यारह तबादले हुए। दो बार तो पटना के ही कलेक्टर बने। जो सरकारी अधिकारी नेताओं को खिला पिला कर खुश रखता है वह पूरी जिंदगी एक ही कुर्सी पर काट देता है और नेता भी उनका साथ देते है। गौतम गोस्वामी को जेल में मौत नसीब हुई इसी से जाहिर है कि सत्ता के दलालों में वे शामिल नहीं थे। राहत का पैसा जिस प्राइवेट संस्था में जमा किया गया उसका नाम सरकार की संस्था से मिलता जुलता था और यह संस्था लालू यादव के सबसे खास एक नेता की थी।


गौतम गोस्वामी जब जेल से बाहर आए तो उन्हें उम्मीद थी कि वे अपना सच साबित कर पाएंगे मगर अदालतों के पास वक्त ही नहीं था। जब मामले की सुनवाई होती तब गौतम की सुनी जाती और यह मौका के जीते जी कभी आया नहीं। गौतम की मौत से राहत महसूस करने वाले बहुत होंगे क्यांकि अब उनके कलंक उजागर करने वाला कोई नहीं है। अभी तक की जांच में पता लग चुका है कि फर्जी संस्था को असली बता कर और फाइलों पर नकली कारण दर्ज कर के गौतम गोस्वामी से चेकों पर दस्तखत करवाए जाते रहे और आखिरकार सारे कलंक गौतम के सिर पर मढ़ दिए गए।


गौतम की पत्नी अनुराधा भी डॉक्टर हैं और एक नादान बेटी और बेटा है। न्याय के लिए न सही, तंत्र के न सही, लोकतंत्र के लिए न सही, इन बच्चों को कलंकमुक्त करने के लिए उस घोटाले की पूरी जांच होनी चाहिए और सही नतीजे सामने आने चाहिए जिसने गौतम गोस्वामी जैसे शानदार कैरियर वाले आदमी को कलंक का पात्र बना दिया। टाइम पत्रिका ने तो गौतम को शाहरूख खान और अनुष्का शंकर के बराबर रखा था। गौतम की जिंदगी को कहानी बना कर टाइम पत्रिका के भारत संवाददाता अरविंद अडिग ने उपन्यास लिखा और इस उपन्यास पर बाकायदा बुकर्स पुरस्कार से सम्मानित हुए।


गौतम गोस्वामी को याद करने वाले बहुत सारे लोग हैं। इनमें से बड़ी संख्या समस्तीपुर में हैं जहां आईएएस में आने के बाद गौतम गोस्वामी रौशेरा ब्लॉक के अनुविभागीय अधिकारी बने थे। अपना अफसरी का काम करने के बाद गौतम और उनकी पत्नी गरीबों और गांव वालों का इलाज करते थे। इसके लिए कोई फीस नहीं लेते थे। बिहार में लोकतंत्र एक बार फिर जैसे भी वापस आया है मगर इस लोकतंत्र का मतलब सिर्फ हवाई पाठ पढ़ा देने और गुनाहों की अपनी परिभाषा गढ़ लेने से हैं तो इस लोकतंत्र का मतलब क्या है? गौतम गोस्वामी की आत्मा यह सवाल पूछती है और हम में से किसी के पास जवाब नहीं हैं।

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